बाघ सिंह की
कचहरी:-
अपनी बारह औरतों
से बाघ जी
की 24 सन्तानें
होती हैं। वह
बगड़ावत कहलाते हैं। बगड़ावत
गू जाति से
सम्बंध रखते थे।
इनका मुख्य व्यवसाय
पशुपालन था। और
बड़े पैमाने पर
इनका पशु पालन
का कारोबार था।
वह इस कार्य
में प्रवीण थे
और उन्होनें अपनी
गायों की नस्ल
सुधारी थी। उनके
पास बहुत बढिया
नस्ल की गायें
थी। गाथा के
अनुसार काबरा नामक सांड
उत्तम जाति का
सांड था। उनके
पास 4 बढिया
नस्ल की गायें
थी जिनमें सुरह,
कामधेनु, पारवती और नांगल
गायें थी। इनकी
हिफाजत और सेवा
में ये लोग
लगे रहते थे।
बगड़ावत भाईयों में सबसे
बड़े तेजाजी, सवाई
भोज, नियाजी, बहारावत
आदि थे। सवाई
भोज की शादी
मालवा में साडू
माता के साथ
होती है। साडू
माता के यहां
से भी दहेज
में बगड़ावतों को
पशुधन मिलता है।
एक ग्वाला जिसका
नाम नापा ग्वाल
होता है उसे
बगड़ावत साडू के
पीहर मालवा से
लाते है। नापा
ग्वाल इनके पशुओं
को जंगल में
चराने का काम
करता था। इसके
अधीन भी कई
ग्वाले होते है
जो गायों की
देखरेख करते थे।
गाथा के अनुसार
बगड़ावतों के पास
1,80,000 गायें और 1444
ग्वाले थे।
बाबा रुपनाथ और सवाई
भोज :-
एक बार बगड़ावत
गायें चराकर लौट
रहे होते हैं
तब उन गायों
में एक गाय
ऐसी होती है
जो रोज उनकी
गायों के साथ
शामिल हो जाती
थी और शाम
को लौटते समय
वह गाय अलग
चली जाती है।
सवाई भोज यह
देखते हैं कि
यह गाय रोज
अपनी गायों के
साथ आती है
और चली जाती
है।
यह देख सवाई
भोज अपने भाई
नियाजी को कहते
हैं कि इस
गाय के पीछे
जाओ और पता
करो की यह
गाय किसकी है
और कहां से
आती हैं? इसके
मालिक से अपनी
ग्वाली का मेहनताना
लेकर आना।
नियाजी उस गाय
के पीछे-पीछे
जाते हैं। वह
गाय एक गुफा
में जाती हैं।
वहां नियाजी भी
पहुंच जाते हैं
और देखते है
कि गुफा में
एक साधु (बाबा
रुपनाथजी) धूनी के
पास बैठे साधना
कर रहे हैं।
नियाजी साधु से
पूछते हैं कि
महाराज यह गाय
आपकी है। साधु
कहते है, हां
गाय तो हमारी
ही है। नियाजी
कहते है आपको
इसकी गुवाली देनी
होगी। यह रोज
हमारी गायों के
साथ चरने आती
है। हम इसकी
देखरेख करते हैं।
साधु कहता है
अपनी झोली माण्ड।
नियाजी अपनी कम्बल
की झोली फैलाते
हैं। बाबा रुपनाथजी
धूणी में से
धोबे भर धूणी
की राख नियाजी
की झोली में
डाल देते हैं।
नियाजी राख लेकर
वहां से अपने
घर की ओर
चल देते हैं।
रास्ते में साधु
के द्वारा दी
गई धूणी की
राख को गिरा
देते हैं और
घर आकर राख
लगे कम्बल को
खूंटीं पर टांक
देते हैं। जब
रात होती है
तो अन्धेरें में
खूंटीं पर टंगे
कम्बल से प्रकाश
फूटता है। तब
सवाई भोज देखते
हैं कि उस
कम्बल में कहीं-कहीं सोने
एवं हीरे जवाहरात
लगे हुए हैं
तो वह नियाजी
से सारी बात
पूछते हैं। नियाजी
सारी बात बताते
हैं। बगड़ावतों को
लगता है कि
जरुर वह साधु
कोई करामाती पहुंचा
हुआ है।
यह जानकर कि वो
राख मायावी थी,
सवाई भोज अगले
दिन उस साधु
की गुफा में
जाते हैं और
रुपनाथजी को प्रणाम
करके बैठ जाते
हैं, और बाबा
रुपनाथजी की सेवा
करते हैं। यह
क्रम कई दिनो
तक चलता रहता
है।
एक दिन बाबा
रुपनाथजी निवृत होने के
लिये गुफा से
बाहर कहीं जाते
हैं। पीछे से
सवाई भोज गुफा
के सभी हिस्सो
में घूम फिर
कर देखते हैं।
उन्हें एक जगह
इन्सानों के कटे
सिर दिखाई देते
हैं। वह सवाई
भोज को देखकर
हंसते हैं। सवाई
भोज उन कटे
हुए सिरों से
पूछते हैं कि
हँस क्यों रहे
हो? तब उन्हें
जवाब मिलता है
कि तुम भी
थोड़े दिनों में
हमारी जमात में
शामिल होने वाले
हो, यानि तुम्हारा
हाल भी हमारे
जैसा ही होने
वाला है। हम
भी बाबा की
ऐसे ही सेवा
करते थे। थोड़े
दिनों में ही
बाबा ने हमारे
सिर काट कर
गुफा में डाल
दिए। ऐसा ही
हाल तुम्हारा भी
होने वाला है।
यह सुनकर सवाई
भोज सावधान हो
जाते हैं।
थोड़ी देर बाद
बाबा रुपनाथ वापस
लौट आते हैं
और सवाई भोज
से कहते हैं
कि मैं तेरी
सेवा से प्रसन्न
हुआ। आज मैं
तेरे को एक
विद्या सिखाता हूं। सवाई
भोज से एक
बड़ा कड़ाव और
तेल लेकर आने
के लिये कहते
हैं। सवाई भोज
बाबा रुपनाथ के
कहे अनुसार एक
बड़ा कड़ाव और
तेल लेकर पहुंचते
हैं। बाबा कहते
हैं कि अलाव
(आग) जलाकर कड़ाव
उस पर चढ़ा
दे और तेल
कड़ाव में डाल
दे। तेल पूरी
तरह से गर्म
हो जाने पर
रुपनाथजी सवाई भोज
से कहते हैं
कि आजा इस
कड़ाव की परिक्रमा
करते हैं। आगे
सवाई भोज और
पीछे बाबा रुपनाथजी
कड़ाव की परिक्रमा
शुरु करते हैं।
बाबा रुपनाथ सवाई
भोज के पीछे-पीछे चलते
हुये एकदम सवाई
भोज को कड़ाव
में धकेलने का
प्रयत्न करते हैं।
सवाई भोज पहले
से ही सावधान
होते हैं, इसलिए
छलांग लगाकर कड़ाव
के दूसरी और
कूद जाते हैं
और बच जाते
हैं।
फिर सवाई भोज
बाबा रुपनाथ से
कहते हैं महाराज
अब आप आगे
आ जाओ और
फिर से परिक्रमा
शुरु करते हैं।
सवाई भोज जवान
एवं ताकतवर होते
हैं। इस बार
वह परिक्रमा करते
समय आगे चल
रहे बाबा रुपनाथ
को उठाकर गर्म
तेल के कड़ाव
में डाल देते
हैं।
बाबा रुपनाथ का शरीर
कड़ाव में गिरते
ही सोने का
हो जाता है।
वह सोने का
पोरसा बन जाता
है। तभी अचानक
आकाश से आकाशवाणी
होती है कि
सवाई भोज तुम्हारी
बारह वर्ष की
काया है और
बारह वर्ष की
ही माया है।
यानि बारह साल
की ही बगड़ावतों
की आयु है
और बाबा रुपनाथ
की गुफा से
मिले धन की
माया भी बारह
साल तुम्हारे साथ
रहेगी। और एक
आकाशवाणी यह भी
होती है की
यह जो सोने
का पोरसा है
इसको तुम पांवों
की तरफ से
काटोगे तो यह
बढ्ेगा और यदि
सिर की तरफ
से काटोगे तो
यह घटता जायेगा।
इस धन को
तुम लोग खूब
खर्च करना, दान-पुण्य करना। सवाई
भोज को बाबा
रुपनाथ की गुफा
से भी काफी
सारा धन मिलता
है जिनमें एक
जयमंगला हाथी, एक सोने
का खांडा, बुली
घोड़ी, सुरह गाय,
सोने का पोरसा,
कश्मीरी तम्बू इत्यादि। दुर्लभ
चीजें लेकर सवाई
भोज घर आ
जाते हैं।
घर आकर सवाई
भोज बाबा रुपनाथ
व सोने के
पोरसे की सारी
घटना अपने भाइयों
एवं परिवार वालों
को बताते हैं।
इस अथाह सम्पत्ति
का क्या करें
यह विचार करते
हैं।
इतना सारा धन
प्राप्त हो जाने
पर सभी बगड़ावत
अपना पशुधन और
बढ़ाते हैं। सभी
अपने लिये घोड़े
खरीदते हैं और
सभी घोड़ो के
लिये सोने के
जेवर बनवाते हैं।
ऐसा कहा जाता
है कि बगड़ावत
अपने सभी घोड़ों
के सोने के
जेवर कच्चे सूत
के धागे में
पिरोकर बनाते थे। उनके
घोड़े जब भी
दौड़ते थे तब
वह जेवर टूट
कर गिरते रहते
थे और वे
दोबारा जेवर बनवाते
रहते थे। आज
भी ये जेवर
कभी-कभी बगड़ावतों
के गांवो के
ठिकानों से मिलते
हैं। बगड़ावत खूब
जमीन खरीदते हैं।
और अपने अलग-अलग गांव
बसाते हैं। सवाई
भोज अपने गांव
का नाम गोठांंं
रखते हैं। बगड़ावत
काफी धार्मिक काम
करते हैं। तालाब
और बावड़ियां बनवाते
हैं और जनहित
में कई काम
करते हैं।
बगड़ावतों के पास
काफी सम्पत्ति होने
से वो काफी
पैसा शराब खरीदने
पर भी खर्च
करते हैं और
अपने घोड़ो को
भी शराब पिलाते
हैं।
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